07 - 03 - 88  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

भाग्यवान बच्चों के श्रेष्ठ भाग्य की लिस्ट

अमृतवेले भाग्यवान बाप से मिलन मनाने वाले, परमशिक्षक ज्ञानसागर बाप से पढ़ाई पढ़ने वाले, कर्म करते भी करावनहार बाप की स्मृति में रहने वाले, भाग्यवान खिला रहा है - इस स्मृति में रह ब्रह्माभोजन खाने वाले, बाप के याद की गोदी में सोने वाले - ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को श्रेष्ठ भाग्य की स्मृति दिलाते हुए भाग्यविधाता बापदादा बोले

आज भाग्यविधाता बापदादा अपने भाग्यवान बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण बच्चें का भाग्य दुनिया के साधारण आत्माओं में से अति श्रेष्ठ है क्योंकि हर एक ब्राह्मण आत्मा कोटों में से कोई और कोई में भी कोई है। कहाँ साढ़े पांच सौ करोड़ आत्मायें और कहाँ आप ब्राह्मणों का छोटा - सा संसार है! उन्हों के अन्तर में कितने थोड़े हो! इसलिए अज्ञानी, अन्जान आत्माओं के अन्तर में आप सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ भाग्यवान हो। बापदादा देख रहे हैं कि हर एक ब्राह्मण के मस्तक पर भाग्य की रेखा बहुत स्पष्ट तिलक के समान चमक रही है। हद के ज्योतिषी हाथों से रेखा देखते हैं लेकिन यह दिव्य ईश्वरीय भाग्य की रेखा हर एक के मस्तक पर दिखाई देती है। जितना श्रेष्ठ भाग्य उतना भाग्यवान बच्चों का मस्तक सदा अलौकिक लाइट में चमकता रहता है। भाग्यवान बच्चों की और निशानियाँ क्या दिखाई देंगी? सदा मुख पर ईश्वरीय रूहानी मुस्कराहट अनुभव होगी। भाग्यवान के नयन अर्थात् दिव्य दृष्टि किसी को भी सदा खुशी की लहर उत्पन्न कराने के निमित्त बनती है। जिसको भी दृष्टि मिलेगी वह रूहानियत का, रूहानी बाप का, परमात्म - याद का अनुभव करेगा। भाग्यवान आत्मा के सम्पर्क में हर एक आत्मा को हल्कापन अर्थात् लाइट की अनुभूति होगी। ब्राह्मण आत्माओं में भी नम्बरवार तो अन्त तक ही रहेंगे लेकिन निशानियाँ नम्बरवार सभी भाग्यवान बच्चों की है। आगे और भी प्रत्यक्ष होती जायेंगी।

अभी थोड़ा समय को आगे बढ़ने दो। थोड़े समय में जब अति और अन्त - दोनों ही अनुभव होगा तो चारों ओर अन्जान आत्मायें हद के वैराग वृत्ति में आयेंगी और आप भाग्यवान आत्मायें बेहद के वैराग वृत्ति के अनुभव में होगी। अभी तो दुनिया वालों में भी वैराग नहीं है। अगर थोड़ी - बहुत रिहर्सल होती भी है तो और ही अलबेलेपन की नींद में सो जाते हैं कि यह तो होता ही रहता है। लेकिन जब ‘अति' और ‘अन्त' के नजारे सामने आयेंगे तो स्वत: ही हद की वैराग वृत्ति उत्पन्न होगी और अति टेन्शन (तनाव) होने के कारण सभी का अटेन्शन (ध्यान) एक बाप तरफ जायेगा। उस समय सर्व आत्माओं की दिल से आवाज निकलेगी कि सब का रचयिता, सभी का बाप एक है और बुद्धि अनेक तरफ से निकल एक तरफ स्वत: ही जायेगी। ऐसे समय पर आप भाग्यवान आत्माओं के बेहद के वैराग वृत्ति की स्थिति स्वत: और निरन्तर हो जायेगी और हर एक के मस्तक से भाग्य की रेखायें स्पष्ट दिखाई देंगी। अभी भी श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों की बुद्धि में सदा क्या रहता? ‘भगवान' और ‘भाग्य'।

अमृतवेले से अपने भाग्य की लिस्ट निकालो। भाग्यवान बच्चों को अमृतवेले स्वयं बाप उठाते भी हैं और आह्वान भी करते हैं। जो अति स्नेही बच्चे हैं, उन्हों का अनुभव है कि सोने भी चाहे तो कोई सोने नहीं दे रहा है, कोई उठा रहा है, बुला रहा है। ऐसे अनुभव होता है ना। अमृतवेले से अपना भाग्य देखा। भक्ति में देवताओं को भगवान समझ भक्त घण्टी बजाकर उठाते हैं और आपको भगवान खुद उठाते हैं, कितना भाग्य है! अमृतवेले से लेकर बाप बच्चों के सेवाधारी बन सेवा करते हैं और फिर आह्वान करते हैं - ‘आओ, बाप समान स्थिति का अनुभव करो, मेरे साथ बैठ जाओ।' बाप कहाँ बैठा है? ऊँचे स्थान पर और ऊँची स्थिति में। जब बाप के साथ बैठ जायेंगे तो स्थिति क्या होगी! मेहनत क्यों करते हो? साथ में बैठ जाओ तो संग का रंग स्वत: ही लगेगा। स्थान के प्रमाण स्थिति स्वत: ही होगी। जैसे मधुबन के स्थान पर आते हो तो स्थिति क्या हो जाती है? योग लगाना पड़ता है या योग लगा हुआ ही रहता है? तभी तो यहाँ ज्यादा रहने की इच्छा रखते हो ना। अभी सबको कहें - और 15 दिन रह जाओ तो खुशी में नाचेंगे ना। तो जैसे स्थान का स्थिति पर प्रभाव पड़ता है, ऐसे अमृतवेले या तो परमधाम में या सूक्ष्मवतन में चले जाओ, बाप के साथ बैठ जाओ। अमृतवेला शक्तिशाली होगा तो सारा दिन स्वत: ही मदद मिलेगी। तो अपने भाग्य को स्मृति में रखो - ‘‘वाह, मेरा भाग्य!'' दिनचर्या ही भगवान से शुरू होती।

फिर अपना भाग्य देखो - बाप स्वयं शिक्षक बन कितना दूर देश से आपको पढ़ाने आता है! लोग तो भगवान के पास जाने के लिए प्रयत्न करते और भगवान स्वयं आपके पास शिक्षक बन पढ़ाने आते हैं, कितना भाग्य है! और कितने समय से सेवा की ड्यूटी बजा रहे हैं! कभी सुस्ती करता है? कभी बहाना लगाता है - आज सिर दर्द है, आज रात्रि को सोये नहीं है? तो जैसे बाप अथक सेवाधारी बन सेवा करते हैं, तो बाप समान बच्चे भी अथक सेवाधारी। अपनी दिनचर्या देखो, कितना बड़ा भाग्य है? बाप सदा स्नेही, सिकीलधे बच्चें को कहते हैं - कोई भी सेवा करते हो, चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक, चाहे परिवार में, चाहे सेवाकेन्द्रों पर - कोई भी कर्म करो, कोई भी ड्यूटी बजाओ लेकिन सदा यह अनुभव करो कि करावनहार करा रहा है मुझ निमित्त करनहार द्वारा, मैं सेवा करने के लिए निमित्त बना हुआ हूँ, करावनहार करा रहा है। यहाँ भी अकेले नहीं हो, करावनहार के रूप में बाप कर्म करने समय भी साथ है। आप तो सिर्फ निमित्त हो। भगवान विशेष करावनहार है। अकेले करते ही क्यों हो? अकेला मैं करता हूँ - यह भान रहता है तो यह ‘मैं - पन' माया का दरवाजा है। फिर कहते हो - माया आ गई। जब दरवाजा खोला तो माया तो इन्तजार में हैं और आपने इन्तजाम अच्छा कर लिया तो क्यों नहीं आयेगी?

यह भी अपना भाग्य स्मृति में रखो कि बाप करावनहार हर कर्म में करा रहा है। तो बोझ नहीं होगा। बोझ मालिक पर होता है, साथी जो होते उन पर बोझ नहीं होता। मालिक बन जाते हो तो बोझ आ जाता है। मैं बालक और मालिक बाप है, मालिक बालक से करा रहा है। बड़े बन जाते हो तो बड़े दु:ख आ जाते हैं। बालक बनकर, मालिक के डायरेकशन पर करो। कितना बड़ा भाग्य है यह! हर कर्म में बाप जिम्मेवार बन हल्का बनाए उड़ा रहे हैं। होता क्या है, जब कोई समस्या आती है तो कहते हो - बाबा, अभी बाप जानो। और जब समस्या समाप्त हो जाती है तो मस्त हो जाते हो। लेकिन ऐसे करो ही क्यों जो समस्या आवे। करावनहार बाप के डायरेक्शन प्रमाण हर कर्म करते चलो तो कर्म भी श्रेष्ठ और श्रेष्ठ कर्म का फल - सदा खुशी, सदा हल्कापन, फरिश्ता जीवन का अनुभव करते रहेंगे। ‘फरिश्ता कर्म के सम्बन्ध में आयेगा लेकिन कर्म के बन्धन में नहीं बंधेगा।' और बाप का सम्बन्ध करावनहार का जुटा हुआ है, इसलिए निमित्त भाव में कभी ‘मैं - पन' का अभिमान नहीं आता है। सदा निर्मान बन निर्माण का कार्य करेंगे। तो कितना भाग्य है आपका!

और फिर ब्रह्मा - भोजन खिलाता कौन है? नाम ही है - ‘ब्रह्मा - भोजन'। ब्रह्मभोजन नहीं, ब्रह्मा भोजन। तो ब्रह्मा यज्ञ का सदा रक्षक है। हर एक यज्ञ - वत्स वा ब्रह्मा - वत्स के लिए ब्रह्मा बाप द्वारा ब्रह्मा - भोजन मिलना ही है। लोग तो वैसे ही कहते कि हमको भगवान खिला रहा है। मालूम है नहीं भगवान क्या, लेकिन खिलाता भगवान है। लेकिन ब्राह्मण बच्चों को तो बाप ही खिलाता है। चाहे लौकिक कमाई भी करके पैसे जमा करते, उसी से भोजन मंगाते भी हो लेकिन पहले अपनी कमाई भी बाप की भण्डारी में डालते हो। बाप की भण्डारी भोलानाथ का भण्डारा बन जाता है। कभी भी इस विधि को भूलना नहीं। नहीं तो, सोचेंगे - हम खुद कमाते, खुद खाते हैं। वैसे तो ट्रस्टी हो, ट्रस्टी का कुछ नहीं होता है। हम अपनी कमाई से खाते हैं - यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। जब ट्रस्टी हैं तो सब बाप के हवाले कर दिया। तेरा हो गया, मेरा नहीं। ट्रस्टी अर्थात् तेरा और गृहस्थी अर्थात् मेरा। आप कौन हो? गृहस्थी तो नहीं हो ना? भगवान खिला रहा है, ब्रह्मा - भोजन मिल रहा है - ब्राह्मण आत्माओं को यह नशा स्वत: ही रहता है और बाप की गैरन्टी है - 21 जन्म ब्राह्मण आत्मा कभी भूखी नहीं रह सकती, बड़े प्यार से दाल - रोटी, सब्जी खिलायेंगे। यह जन्म भी दाल - रोटी प्यार की खायेंगे, मेहनत की नहीं। इसलिए सदा यह स्मृति रखो कि अमृतवेले से लेकर क्या - क्या भाग्य प्राप्त हैं! सारी दिनचर्या सोचो।

सुलाते भी बाप हैं लोरी देकर के। बाप की गोदी में सो जाओ तो थकावट बीमारी सब भूल जायेंगी और आराम करेंगे! सिर्फ आह्वान करो - ‘आ राम' तो आराम आ जायेगा। अकेले सोते हो तो और - और संकल्प चलते हैं। बाप के साथ ‘याद की गोदी' में सो जाओ। ‘मीठे बच्चे', ‘प्यारे बच्चे' की लोरी सुनते - सुनते सो जाओ। देखो कितना अलौकिक अनुभव होता है! तो अमृतवेले से लेकर रात तक सब भगवान करा रहा है, चलाने वाला चला रहा है, कराने वाला करा रहा है - सदा इस भाग्य को स्मृति में रखो, इमर्ज करो। कोई हद का नशा भी जब तक पीते नहीं तब तक नशा नहीं चढ़ता। ऐसे ही सिर्फ बोतल में रखा हो तो नशा चढ़ेगा? यह भी बुद्धि में समाया हुआ तो है लेकिन इसको यूज करो। स्मृति में लाना अर्थात् पीना, इमर्ज करना। इसको कहते हैं - स्मृति स्वरूप बनो। ऐसे नहीं कहा है कि बुद्धि में समाया हुआ रखो। स्मृतिस्वरूप बनो। कितने भाग्यवान हो! रोज अपने भाग्य को स्मृति में रख समर्थ बनो और उड़ते चलो। समझा, क्या करना है? डबल विदेशी हद के नशे के तो अनुभवी हैं, अभी ये बेहद का नशा स्मृति में रखो तो सदा भाग्य की श्रेष्ठ लकीर मस्तक पर चमकती रहेगी, स्पष्ट दिखाई देगी। अभी किन्हों की मर्ज दिखाई देती, किन्हों की स्पष्ट दिखाई देती है। लेकिन सदा स्मृति में रहेगी तो मस्तक पर चमकती रहेगी, औरों को भी अनुभव कराते रहेंगे। अच्छा!

सदा भगवान और भाग्य - ऐसे स्मृतिस्वरूप समर्थ आत्माओं को, सदा हर कर्म में करनहार बन कर्म करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा अमृतवेले बाप के साथ ऊँचे स्थान, ऊँची स्थिति पर स्थिति रहने वाले भाग्यवान बच्चों को, सदा अपने मस्तक द्वारा श्रेष्ठ भाग्य की रेखायें औरों को अनुभव कराने वाले विशेष ब्राह्मणों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

विदाई के समय दादी जानकी बम्बई तथा कुरूक्षेत्र सेवा पर जाने की छुट्टी ले रही हैं।

महारथियों के पाँव में सेवा का चक्र तो है ही। जहाँ जाते हैं, वहाँ सेवा के बिना तो कुछ होता नहीं। चाहे किस कारण से भी जायें लेकिन सेवा समाई हुई है। हर कदम में सेवा के सिवाए कुछ है ही नहीं। अगर चलते भी हैं तो चलते हुए भी सेवा है। अगर खाना भी खाते हैं, किसको बुलाके खिला देते हैं, स्नेह से स्वीकार करते हैं - तो यह भी सेवा हो गई। उठते - बैठते, चलते सेवा - ही - सेवा है। ऐसे सेवाधारी हो। सेवा का चांस मिलना भी भाग्य की निशानी है। बड़े चक्रवर्ती बनना है तो सेवा का चक्र भी बड़ा है। अच्छा!